विश्वाश
मैं गोपाल राव एक सामान्य परिवार से सम्बन्ध रखने वाला अतिसामान्य आदमी हूँ सारी ज़िन्दगी शराफत और मेहनत करते हुए बीते है कुछ पैसे भी इकठे कर रखे है जोकि लड़की की शादी मैं खर्च करने की दिली तमन्ना है आखिर वह दिन नज़दीक आ ही गया जिसके लिए मेहनत से कुछ पैसा इकठा किया हुआ है
मेरी बेटी की शादी थी और मैं कुछ दिनों की छुट्टी ले कर शादी के तमाम इंतजाम को देख रहा था. कुछ पैसे थे परन्तु जरूरत का कोई अंत नहीं है खर्च कुछ ज्यादा हो गया था उस दिन सफर से लौट कर मैं घर आया तो पत्नी ने आ कर एक लिफाफा मुझे पकड़ा दिया. लिफाफा अनजाना था लेकिन प्रेषक का नाम देख कर मुझे एक आश्चर्यमिश्रित जिज्ञासा हुई.
‘अमर विश्वास’ एक ऐसा नाम जिसे मिले मुझे वर्षों बीत गए थे. मैंने लिफाफा खोला तो उस में चेक और एक चिट्ठी थी. इतनी बड़ी राशि वह भी मेरे नाम पर. मैं ने जल्दी से चिट्ठी खोली और एक सांस में ही सारा पत्र पढ़ डाला. पत्र किसी परी कथा की तरह मुझे अचंभित कर गया. लिखा था :
आदरणीय सर, मैं एक छोटी सी भेंट आप को दे रहा हूं. मुझे नहीं लगता कि आप के एहसानों का कर्ज मैं कभी उतार पाऊंगा. ये उपहार मेरी अनदेखी बहन के लिए है. घर पर सभी को मेरा प्रणाम. आप का, अमर.
चिठ्ठी मैं अमर ने अपने आने का दिन और तारीख भी लिखी थी मेरी आंखों में वर्षों पुराने दिन सहसा किसी चलचित्र की तरह तैर गए.
एक दिन मैं चंडीगढ़ में टहलते हुए एक किताबों की दुकान पर अपनी मनपसंद पत्रिकाएं उलटपलट रहा था कि मेरी नजर बाहर पुस्तकों के एक छोटे से ढेर के पास खड़े एक लड़के पर पड़ी. वह पुस्तक की दुकान में घुसते हर संभ्रांत व्यक्ति से कुछ अनुनय विनय करता और कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर वापस अपनी जगह पर जा कर खड़ा हो जाता. मैं काफी देर तक मूकदर्शक की तरह यह नजारा देखता रहा. पहली नजर में यह फुटपाथ पर दुकान लगाने वालों द्वारा की जाने वाली सामान्य सी व्यवस्था लगी, लेकिन उस लड़के के चेहरे की निराशा सामान्य नहीं थी. वह हर बार नई आशा के साथ अपनी कोशिश करता, फिर वही निराशा.
मैं काफी देर तक उसे देखने के बाद अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाया और उस लड़के के पास जा कर खड़ा हो गया. वह लड़का कुछ सामान्य सी विज्ञान की पुस्तकें बेच रहा था. मुझे देख कर उस में फिर उम्मीद का संचार हुआ और बड़ी ऊर्जा के साथ उस ने मुझे पुस्तकें दिखानी शुरू कीं. मैं ने उस लड़के को ध्यान से देखा. साफसुथरा, चेहरे पर आत्मविश्वास लेकिन पहनावा बहुत ही साधारण. ठंड का मौसम था और वह केवल एक हलका सा स्वेटर पहने हुए था. पुस्तकें मेरे किसी काम की नहीं थीं फिर भी मैं ने जैसे किसी सम्मोहन से बंध कर उस से पूछा, ‘बच्चे, ये सारी पुस्तकें कितने की हैं?’
‘आप कितना दे सकते हैं, सर?’
‘अरे, कुछ तुम ने सोचा तो होगा.’
‘आप जो दे देंगे,’ लड़का थोड़ा निराश हो कर बोला.
‘तुम्हें कितना चाहिए?’ उस लड़के ने अब यह समझना शुरू कर दिया कि मैं अपना समय उस के साथ गुजार रहा हूं.
‘5 हजार रुपए,’ वह लड़का कुछ कड़वाहट में बोला.
‘इन पुस्तकों का कोई 500 भी दे दे तो बहुत है,’ मैं उसे दुखी नहीं करना चाहता था फिर भी अनायास मुंह से निकल गया.
अब उस लड़के का चेहरा देखने लायक था. जैसे ढेर सारी निराशा किसी ने उस के चेहरे पर उड़ेल दी हो. मुझे अब अपने कहे पर पछतावा हुआ. मैंने अपना एक हाथ उस के कंधे पर रखा और उससे सांत्वना भरे शब्दों में फिर पूछा, ‘देखो बेटे, मुझे तुम पुस्तक बेचने वाले तो नहीं लगते, क्या बात है. साफसाफ बताओ कि क्या जरूरत है?’
वह लड़का तब जैसे फूट पड़ा. शायद काफी समय निराशा का उतार चढ़ाव अब उस के बरदाश्त के बाहर था.
‘सर, मैं 10+2 कर चुका हूं. मेरे पिता एक छोटे से रेस्तरां में काम करते हैं. मेरा एक बड़ा भाई भी है वह भी पिता जी के साथ ही वेटर का काम करता था उसकी शादी २ साल पहले की थी ६ महीने बाद भाभी ने घर छोड़ दिया और अपने दोस्त के साथ रहने चली गयी हमारे पुरे परिवार पर दहेज़ और रेप का झूठा मुकदमा करवा दिया पिछले ढेड़ साल से मुकदमा चल रहा है पिता और भाई जेल मैं है घर पर मैं और माता जी है माता जी चिंता के कारण बीमार पड़ी है इसीलिए मैं पढ़ाई छोड़ कर छोटा मोटा काम करके घर चला रहा हूँ
पिता जी की जमानत हो गयी है परन्तु जमानत के लिए मेरे पास रुपये नहीं है बस इसीलिए पुराणी किताबें बेच कर इकठा करने की कोशिश कर रहा हूँ अगर रुपये इकठे करके पिताजी को जेल से बहार ला सका तो शायद माता जी को कुछ तसली मिलेगी और वह कुछ ठीक हो जाएँ
‘तुम्हारा नाम क्या है?’ मैं ने मंत्रमुग्ध हो कर पूछा?
‘अमर विश्वास.’
‘तुम विश्वास हो और दिल छोटा करते हो. कितना पैसा चाहिए?’
‘5 हजार,’ अब की बार उस के स्वर में दीनता थी.
‘अगर मैं तुम्हें यह रकम दे दूं तो क्या मुझे वापस कर पाओगे? इन पुस्तकों की इतनी कीमत तो है नहीं,’ इस बार मैं ने थोड़ा हंस कर पूछा.
‘सर, आप ने ही तो कहा कि मैं विश्वास हूं. आप मुझ पर विश्वास कर सकते हैं. मैं पिछले 4 दिन से यहां आता हूं, आप पहले आदमी हैं जिस ने इतना पूछा. उस के स्वर में अपने भविष्य के डूबने की आशंका थी.
उस के स्वर में जाने क्या बात थी जो मेरे जेहन में उस के लिए सहयोग की भावना तैरने लगी. मस्तिष्क कह रहा था की जरूर इस लड़के के परिवार ने अपनी बहु पर अत्याचार होंगे और लड़के को दुत्कार कर आगे बाद जाने को कह रहा था परन्तु दिल लड़के की मदद करने को मचल रहा था जबकि दिल में उस की बात को स्वीकार करने का स्वर उठने लगा था. आखिर में दिल जीत गया. मैंने अपने पर्स से 5 हजार रुपए निकाले, जिन को मैं शेयर मार्किट में निवेश करने की सोच रहा था, उसे पकड़ा दिए. वैसे इतने रुपए तो मेरे लिए भी माने रखते थे, लेकिन न जाने किस मोह ने मुझसे वह पैसे निकलवा लिए.
‘देखो बेटे, मैं नहीं जानता कि तुम्हारी बातों में, तुम्हारी इच्छाशक्ति में कितना दम है, लेकिन मेरा दिल कहता है कि तुम्हारी मदद करनी चाहिए, इसीलिए कर रहा हूं. तुम से 4-5 साल छोटी मेरी बेटी भी है मिनी. सोचूंगा उस के लिए ही कोई खिलौना खरीद लिया,’ मैंने पैसे अमर की तरफ बढ़ाते हुए कहा.
अमर हतप्रभ था. शायद उसे यकीन नहीं आ रहा था. उस की आंखों में आंसू तैर आए. उस ने मेरे पैर छुए तो आंखों से निकली दो बूंदें मेरे पैरों को चूम गईं.
‘ये पुस्तकें मैं आप की गाड़ी में रख दूं ?’
‘कोई जरूरत नहीं. इन्हें तुम अपने पास रखो. यह मेरा कार्ड है, जब भी कोई जरूरत हो तो मुझे बताना.’
वह मूर्ति बन कर खड़ा रहा और मैं ने उस का कंधा थपथपाया, कार स्टार्ट कर आगे बढ़ा दी.
कार को चलाते हुए वह घटना मेरे दिमाग में घूम रही थी और मैं अपने खेले जुए के बारे में सोच रहा था, जिस में अनिश्चितता ही ज्यादा थी. कोई दूसरा सुनेगा तो मुझे एक भावुक मूर्ख से ज्यादा कुछ नहीं समझेगा. अत: मैंने यह घटना किसी को न बताने का फैसला किया.
दिन गुजरते गए. एक दिन सुबह सुबह जब घर पर मेरेा अलावा और कोई नहीं था और मैं स्वयं छुट्टी का आनंद लेते हुए सो रहा था घंटी की आवाज़ ने जगा दिया एक बार इच्छा हुई की सोया रहूँ फिर लगा की दरवाज़ा खोलना चाहिए क्या पता पडोसी हो दरवाज़ा खोला तो देखा की एक अधेड़ आयु के दुबले पतले आदमी के साथ अमर था अधेड़ आदमी का पिता था और उसको मैं अच्छी तरह जनता था बल्कि उसने बड़े लड़के की शादी मैं हमको बुलाया भी था पत्नी शादी अटेंड करने गयी भी थी
अमर मेरे दिए हुए 5000 लौटने आया था परन्तु मैंने एक बार फिर से मूर्खता की और दिमाग की आवाज़ को नकारते हुए दिल की आवाज़ सुनी और पैसे लेने से यह कहते हुए मन कर दिया की अभी केस चल रहा है पैसे की जरूरत पड़ेगी इसके अलावा अमर की पढ़ाई दुबारा शुरू करवाने का मश्वरा देते हुए पैसे लोटा दिए एक बार फिर मैंने अपनी मूर्खता सबसे छिपा ली
एक दिन खाली समय मैं घूमने जा रहा था तो अमर और उसके पिता को कहीं जाते हुए देखा तो उनका हाल चाल जानने की इच्छा हुई और उनके साथ हो लिए बातों बातों मैं हम काफी दूर निकल आये जब ध्यान आया तो सामने कोर्ट परिसर का बोर्ड दिखा सोचा अब लौटना चाहिए अगर किसी जानकर ने देख लिया तो बदनामी होगी परन्तु मूर्खता एक बार फिर से जीत गयी और मैं अमर के साथ कोर्ट मैं चला गया पता चला की बड़े लड़के की जमानत के लिए बहस होनी है कुछ बहस के बाद जमानत मंजूर हो गयी ५ हज़ार जमा करने थे मुझे अपनी मूर्खता में कुछ मानवता नजर आई. एक अनजान सी शक्ति में या कहें दिल में अंदर बैठे मानव ने मुझे प्रेरित किया कि मैं 5 हजार रुपए जमा करवा आया एक बार फिर सबसे अपनी मूर्खता छिपा आया परन्तु मूर्खता से संतोष भी मिला शायद इसीलिए जब भी वक़्त मिलता मैं अमर के साथ कोर्ट जाने लगा पहले पहले शर्म महसूस की फिर आदत पद गयी
फिर एक दिन जब पता चला की अमर और उसके परिवार को अपने गवाह कोर्ट मैं पेश करने है और मोहल्ले वाले कोई बयान देने को तैयार नहीं तो एक बार फिर दिल की बात मान कर पत्नी जोकि बड़े लड़के की शादी मैं गयी थी और जो उसने देखा वह सब मैं कोर्ट मैं बयान दे आया एक बार फिर मूर्खता की और छिपा गया सबसे इससे कई दिन पहले जब अमर ने अपनी पड़े दुबारा शुरू की और मुझे बताने आया तो खुद को उसकी मदद करने से रोक नहीं पाया और १ हज़ार रूपये सबसे छिपा कर दे दिए इसके बाद भी जब जैसी मदद बन सकी करता रहा परन्तु मुझे अपनी मूर्खता का पूरा पूरा अहसास था इसीलिए सबसे छिपा भी रहा था
वक़्त गुजरता गया अमर के परिवार वाले कोर्ट से बरी हो गए और अमर का मेडिकल की पढ़ाई भी समाप्त हो गयी मूर्खता लगातार चल रही थी कभी कम और कभी ज्यादा परन्तु चल रही थी
मैं अपनी मूर्खता दोहराता और उसे भूल जाता. मैंने कभी चेष्टा भी नहीं की कि उस के पास जा कर अपने पैसे का उपयोग देखूं, न कभी वह मेरे घर आया. कुछ साल तक यही क्रम चलता रहा. एक दिन उस का पत्र आया कि वह उच्च शिक्षा के लिए आस्ट्रेलिया जा रहा है. छात्रवृत्तियों के बारे में भी बताया था और एक लाइन मिनी के लिए लिखना वह अब भी नहीं भूला.
दिन हवा होते गए. उस का संक्षिप्त सा पत्र आता जिस में 4 लाइनें होतीं. 2 मेरे लिए, एक अपनी पढ़ाई पर और एक मिनी के लिए, जिसे वह अपनी बहन बोलता था.
अमर ने अपनी शादी का कार्ड भेजा. वह शायद आस्ट्रेलिया में ही बसने के विचार में था. मिनी भी अपनी पढ़ाई पूरी कर चुकी थी. एक बड़े परिवार में उस का रिश्ता तय हुआ था. अब मुझे मिनी की शादी करनी थी. मैंने अमर को एक बार फिर याद किया और मिनी की शादी का एक कार्ड अमर को भी भेज दिया.
प्रबंध के लिए ढेर सारे पैसे का इंतजाम…उधेड़बुन… और अब वह चेक ?
मैं वापस अपनी दुनिया में लौट आया.
शादी की गहमागहमी चल रही थी. मैं और मेरी पत्नी व्यवस्थाओं में व्यस्त थे और मिनी अपनी सहेलियों में. एक बड़ी सी गाड़ी पोर्च में आ कर रुकी. एक संभ्रांत से शख्स के लिए ड्राइवर ने गाड़ी का गेट खोला तो उस शख्स के साथ उस की पत्नी जिस की गोद में एक बच्चा था, भी गाड़ी से बाहर निकले.
मैं अपने दरवाजे पर जा कर खड़ा हुआ तो लगा कि इस व्यक्ति को पहले भी कहीं देखा है. उस ने आ कर मेरी पत्नी और मेरे पैर छुए.
‘‘सर, मैं अमर…’’ वह बड़ी श्रद्धा से बोला.
मेरी पत्नी अचंभित सी खड़ी थी. मैं लगातार अपनी मूर्खता सबसे छिपा रहा था पत्नी को भी नहीं पता था मैंने बड़े गर्व से उसे सीने से लगा लिया. उस का बेटा मेरी पत्नी की गोद में घर सा अनुभव कर रहा था. मिनी अब भी संशय में थी. अमर अपने साथ ढेर सारे उपहार ले कर आया था. मिनी को उस ने बड़ी आत्मीयता से गले लगाया. मिनी भाई पा कर बड़ी खुश थी.
अमर शादी में एक बड़े भाई की रस्म हर तरह से निभाने में लगा रहा. उस ने न तो कोई बड़ी जिम्मेदारी मुझ पर डाली और न ही ज्यादा भाग दौड़ करने दी . उस के भारत प्रवास के दिन जैसे पंख लगा कर उड़ गए. इस बार अमर जब आस्ट्रेलिया वापस लौटा तो हवाई अड्डे पर उस को विदा करते हुए न केवल मेरी बल्कि मेरी पत्नी, मिनी सभी की आंखें नम थीं. हवाई जहाज ऊंचा और ऊंचा आकाश को छूने चल दिया और उसी के साथसाथ मेरा विश्वास भी आसमान छू रहा था.
मैं अपनी मूर्खता पर एक बार फिर गर्वित था और सोच रहा था कि इस नश्वर संसार को चलाने वाला कोई भगवान नहीं हमारा विश्वास ही है हमारा आपसी विश्वास और सहयोग