राहुल गांधी और राजनीति
आजाद परिंदा
अभी कल की ही बात है शाम को घूमते फिरते काफी दूर निकल गया । हवा ठंडी थी और मजा आ रहा था । रास्ते में दोस्त मिलते गए और तकरीबन पांच किलोमीटर बाद बड़ा काफिला बन गया । तकरीबन 20 दोस्त इकठ्ठे टहलते हुए आगे ही आगे बढ़ते चले गए । इतना आगे निकल गए की वापसी में दिक्कत हो गई । खैर वापसी एक अलग मसला है वो फिर कभी ।
अब हम महिलाएं तो है नहीं की 20 इकट्ठे हो और चारों तरफ शांति बनी रहे । हम दोस्त है इकठ्ठा होंगे तो शोर शराबा होना तो तय ही है । लिहाजा बातचीत शुरू हुई खेल और खिलाड़ियों के खिलाड़ी (व्यक्तिगत जीवन नहीं) जीवन पर । अच्छी बातचीत हुई कई नई बातें पता चली रोनाल्डो के बारे में , उम्मीद है पता चली नई बातें सच ही होंगी । आजकल सच और झूठ तय करना बहुत मुश्किल काम है । पता ही नहीं चलता कौनसी बात सच है और कौनसी सोशल मीडिया का सच ।
खैर पता नहीं क्यों एक मित्र ने रोनाल्डो और फुटबॉल के बीच राहुल गांधी को खींच लिया ।
फुटबाल की बात हो रही थी बीच में अचानक राहुल गांधी कहां से आ गए ?
आजकल शायद यही सामान्य व्यवहार होगा । मेरे साथ कुछ दिन पहले भी हो चुका है । मैने एक फार्म हाउस खरीदा और एक मित्र ने कह दिया की यह तो सोनिया गांधी के सरकारी मकान से भी छोटा है । मेरी समझ में बिलकुल नहीं आया की मेरे फार्म हाउस का सोनिया गांधी या उसके सरकारी बंगले से क्या लेना देना । मुझे यह तक समझ नहीं आया की में इसका जवाब क्या दूं ।
कल भी यही हुआ बिलकुल समझ नहीं आया की आखिर फुटबाल के मैदान का राहुल गांधी ने क्या लेना देना है।
परंतु कुछ नया सिखाने की चाह ने मेरे दोनो कान खड़े अवश्य कर दिए । वहां बहुत कुछ नया सिखाने लायक हो सकता था परंतु मेरी रुचि यह जानने में थी की मित्र अपनी एकदम असंगत बात को आखिर कैसे हैंडल करते है । अरे भाई जो गुण खुद में न हो उसे दूसरों से सीखा जा सकता है । मुझसे इस बात का कोई जवाब नहीं दिया गया की आखिर सोनिया गांधी के सरकारी आवास और मेरे फार्म हाउस को कैसे डिफेंड करूं , शायद कल सिखने का अवसर था ।
खैर लंबी बहस चली और मुझे बिना सीखे ही ज्ञान हो गया की असंगत बातों को डिफेंड नहीं किया जाना चाहिए उसे हवा में उड़ा देना चाहिए । कल जिस मित्र ने राहुल गांधी का जिक्र किया वो पक्के मोदी भगत है और जो फुटबाल की बात कर रहे थे वो अगले आधे घंटे तक यह समझने में व्यस्त रहे की को राहुल गांधी को बिलकुल पसंद नहीं करते । पहले मित्र मोदी को पसंद करते है राहुल को नहीं, परंतु इसमें मुझे यह साबित करने की जरूरत महसूस नहीं होती की में भी मोदी को पसंद करूं या राहुल को पसंद न करूं । अरे भाई मेरे अपने तर्क है में जिसे चाहूं पसंद करूं , में चाहे मोदी को पसंद करूं फिर चाहे राहुल को या नीतीश को इसमें मुझे किसी के सामने यह साबित करने की जरूरत ही कहां है की में भी मोदी को पसंद करता हूं ।
दरअसल यह सारा मसला नरेटिव सेट करने का है । पिछले एक दशक में यह नेरेटिव सेट कर दिया गया है की जो राहुल या वामपंथी या सेक्युलरिज्म का समर्थक है वो देशद्रोही है । बस इसी हीनता वश लोग अक्सर खुद को राहुल / वामपंथ / सेकुलर विरोधी साबित करने में लगे रहते है फिर चाहे उनका अपना स्टैंड समर्थन का ही क्यों न हो । ऐसा ही एक अन्य उद्धरण और भी है जो पिछले 70 सालों में सेट किए नेटेटिव की वजह से है और जिसने आदमी को मूर्ख प्रजाति में तब्दील कर दिया है । खैर नरेटिव तो बनते और बिगड़ते रहते है । वापिस मुद्दे पर आते है ।
जब दूसरे मित्र लगातार तर्क से समझने में लगे रहे की वो राहुल को पसंद नहीं करते (हालाकि उनका परिवार स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ा रहा है और उनका वोट हमेशा से कांग्रेस को ही गया है) तब आखिर मुझे पूछना ही पड़ा की भाई क्या जरूरत है तुम्हे यह साबित करने की की तुम राहुल गांधी को पसंद करते हो या नहीं । यदि पहले मित्र मोदी भगत है तो यह उनकी समस्या है और अगर तुम राहुल भगत हो तो यह तुम्हारी समस्या है क्यों दोनो अपनी अपनी समस्या एक दूसरे पर लड़ने में वक्त जाया कर रहे हो ।
अगले आधे घंटे तक मुझे पहले मित्र के तर्क सुनने पड़े की वो मोदी भगत नहीं है और अगला आधा घंटा दूसरे मित्र ने बर्बाद किया यह समझने में की वो राहुल भगत नहीं है । और मैं सिर पीटते हुए घर आया ।
शायद असंगत बातें करते रहने का वक्त आ चुका है |