01. रंग बिरंगे लोग
मृत्यु एक ऐसा शब्द है जिसका नाम सुनकर ही आंखों में पानी भर आना सामान्य है । जरूरी नहीं मृत्यु प्राप्त व्यक्ति नजदीकी हो तभी मृत्यु पर दुख हो, सड़क पर अचानक एक्सीडेंट देख कर ही लोगों की जुबान से दुख भरे शब्द सुनने को मिल जाते है । यहां तक की अधिकांश लोग एक्सीडेंट देखने के बाद लंबे समय तक गाड़ी बहुत ध्यान से चलाते है ।
मृत्यु एक ऐसी सचाई है जिसे सब जानते है परंतु इसके लिए कोई भी तैयार नहीं है और ना ही कोई तैयारी करते हुए देखा गया , विशेष तौर पर भारत के बारे में तो यह बात सही ही है । संभव है विदेशों में भी ऐसा ही हो परंतु जहां तक मेरे विदेश यात्रा एवम संपर्क को देखा जाए या जितना विदेशी साहित्य का अध्ययन किया है ऐसा महसूस होता है की विदेशी समाज मृत्यु के प्रति अधिक सहज है ।
मेरी एक नानी जो अब दुनिया में नहीं है , सुना है की जब वो जवान थी और उसका लड़का शायद 1 या 2 साल का था उस वक्त वो इस हद तक बीमार हुई की उसकी मृत्यु लगभग तय थी, जब दवा काम नहीं आती तब दुआ मांगी जाती है और मेरी नानी ने तब तक की जिंदगी मांगी जब तक की लड़का बड़ा नहीं हो जाता । नानी कभी भी मृत्यु के लिए तैयार नहीं हुई यहां तक की जब वो 90 साल से अधिक आयु की हो गई तब भी वो मृत्यु के लिए तैयार नहीं थी । पहले उसकी तम्मन्ना थी की लड़का बड़ा हो जाए फिर चाहे मृत्यु आ जाए । लड़का बड़ा हो गया तो एक बार फिर प्रोग्राम बदल गया अब लड़के लड़कियों का घर बस जाएं उसके बाद चाहे मृत्यु आ जाए । सब लड़के लड़कियों की शादी हो गई तो पोते पोतियों एवम दोहते दोहतियों का जन्म देखने को लालसा पैदा हो गई । अब मामला और आगे बढ़ा तो पोते पोतियों की शादी तक जीवित रहना था । सब पोते पोतियों एवम दोहते दोहतियों की शादी हो गई तब पड़पोते पदपोतियों का चेहरा देखने को इच्छा और फिर उनको शादी की लालसा बन गई । जिस वक्त उसकी मृत्यु हुई उस समय मेरा विवाह नहीं हुआ था और इसका नानी को बहुत बहुत अवसोस था । बस नानी का जोर नहीं चल पा रहा था वरना तो मुझे भी बलि चढ़ा दिया जाना था ।
मेरा अपने जीवन में दो बार मृत्यु को (शायद तीन बार) नजदीक से देखने का अवसर मिला । प्रथम बार जब मेरे पिता की मृत्यु अचानक हो गई और दूसरी बार जब मेरे जीजा को मृत्यु हुई । पहली मृत्यु जहां अचानक थी वही दूसरी मृत्यु के विषय में कई महीने पहले से पता था बस यदि कुछ अज्ञात था तो सही वक्त अज्ञात था । तीसरी बार मेरा स्वयं का एक्सीडेंट हुआ और शायद बहुत नजदीकी मामला था । परंतु कभी भी मुझ पर मृत्यु का भय या दुख हावी दिखाई नहीं दिया । जब पिता की मृत्यु हुई तब मेरे द्वारा मृत्यु को सहजता को देख कर मैं स्वयं आश्चर्यचकित था । फिर जब जीजा की मृत्यु हुई तो आश्चर्य होने का सवाल था ही नहीं क्योंकि मृत्यु की आहट तकरीबन एक साल पहले ही सुनाई दे गई थी । तीसरी बार जब मेरा एक्सीडेंट हुआ तब बहुत करीबी मामला था कार पूरी तरह खत्म हो गई और मैं कबाड़ हुई कार से निकल कर आराम से बगल में खड़ा हो गया । कहीं कोई डर नहीं कोई शिकन तक नहीं कुछ नहीं बस कहां कितनी चोट लगी और इलाज कहां मिल सकता है यही एकमात्र विचार । शायद वो एकमात्र पल था जब मृत्यु मुझे छू कर गुजरी और मैं अटल खड़ा रहा ।
शायद इसका कारण यह हो सकता है को में एक नास्तिक प्रवृति का बहुत कम इमोशनल (लगभग ना के बराबर) व्यक्ति हूं । वैसे संभव है की कुछ अन्य कारण हो परंतु मेरा अनुमान यही है ।
जैसा की मैने बताया हम भारतीय मृत्यु के लिए कभी तैयार नहीं होते या शायद होना ही नहीं चाहते । पिछले दिनों मेरे जीजा की मृत्यु हुई उन्हे कैंसर था तकरीबन चार साल इलाज चलता रहा । हर तीन या चार महीने पर रिपोर्ट निकलती रही और हर बार कैंसर बड़ा हुआ दिखाई देता । आखिर तकरीबन एक साल पहले डॉक्टर ने स्पष्ट कर दिया की बचने को कोई संभावना नहीं है शायद एक साल अधिकतम जिंदा रखा जा सकता है ।
वैसे हमने जीजा को यह बात नहीं बताई उन्हे यही कहते रहे को इलाज चल रहा है । परंतु मेरे विचार से कोई भी इतना नासमझ नहीं होता की अनुमान ना लगा सके । सभी रिपोर्ट वो स्वयं देखते थे रिपोर्ट्स का विश्लेषण स्वयं देखते थे । लगातार बिगड़ती दशा और आखिर में कई महीने लगातार बैड पर रहने के बाद भी कोई अनुमान नहीं लगा सके यह संभव नहीं दिखता । परंतु जीजा के मामले में यही साबित हुआ की मृत्यु सामने खड़ी हो तब भी हम भारतीय मृत्यु की तैयारी नहीं करते ।
वैसे तो पिछले कई महीनों से बिस्तर पर थे परंतु आखिर में कई दिन इंटेंसिव केयर यूनिट में रहने के बाद आखिर मृत्यु आ ही गई । कई दिन ICU के बाहर गुजारने के बावजूद आखिरी सांसें के वक्त मैं मोजूद नहीं था परंतु इसका आवसोस नहीं है क्योंकि यह जरूरी नहीं था । अगर आवसोस है तो सिर्फ इस बात का की एक पढ़े लिखे व्यक्ति ने जिसकी घड़ी पिछले चार सालों से टिक टिक कर रही थी अपनी मृत्यु के बारे में कोई प्लान ही नहीं किया ।
जीजा की तरफ से कोई वसीयत नहीं की गई । हालाकि ऐसा नहीं है को वसीयत ना होने से कुछ समस्या आयेगी परंतु जो काम एक दिन का होना चाहिए वो दस दिन में हो यह भी जायज नहीं कहला सकता । वसीयत ना होने पर पेपर वर्क बहुत अधिक बढ़ जाता है ।
जीजा की तरफ से अपने बैंक खातों में किसी को नॉमिनी नहीं बनाया गया । और ना ही बिजनेस में किसी को नॉमिनी बनाया गया । इसका सीधा अर्थ है की अब बैंक खातों के लिए और व्यापार में भी लंबा चौड़ा पेपर वर्क करना जरूरी हो गया ।
इसी तरह बच्चो की पढ़ाई के लिए पॉलिसीज ले रखी थी परंतु घर वालो को बताने को आवश्यकता ही नहीं समझी । पॉलिसी के पेपर अचानक मिल गए तब पता चला की पॉलिसी ले रखी है वरना तो क्लेम ही नहीं की जाती ।
इसी तरह कई अन्य मामले में भी दिखाई दे रहा है को किसी किस्म की कोई तैयारी नहीं ।
यदि किसी व्यक्ति की मृत्यु अचानक हो जाए तब समझ आता है की शायद उसे वक्त ही नहीं मिल पाया होगा । परंतु किसी व्यक्ति को चार साल मिले और कोई तैयारी ना हो इसे किसी भी तरह जस्टिफाई नहीं किया जा सकता ।
सिर्फ एक संभावना हो सकती है की मरने वाले व्यक्ति को वसीहर और नॉमिनी के महत्व का पता ही ना हो । यदि ऐसा है तब सोचने वाली बात यह है की क्या हम स्वयं को पढ़े लिखे होने का दावा कर सकते है ?
शायद नहीं ।
मैने अपनी वसीयत तकरीबन 8 साल पहले ही लिखवा दी थी वो भी तब जब ऐसा मेरी लाइफ में कोई नहीं जिसे मैं अपना वारिस बनाना चाहता हूं । ऐसे में मेरे लिए वसीयत कोई मायने नहीं रखती परंतु जिनके लिए कुछ लोग महत्वपूर्ण है वो भी अक्सर इंतजार करते रह जाते है ।