वो आ रही है – 03

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03. राजकुमारी प्रज्ञा

Dr.R.Singh

 

 

 

STORY MIRROR

 

 

मुख्य अंगरक्षक होने के कारण में राणा विजेंद्र सिंह के साथ हर उस जगह पर मौजूद थे जहाँ और कोई नहीं पहुँच सकता था | शायद इसी कारण मेरी जानकारी दूसरों से कुछ अधिक हो सकती है परन्तु उस अधिक जानकारी की उपयोगिता सिर्फ वक़्त ही तय कर सकता है | राणा विजेंद्र सिंह दुर्गम पहाड़ी जंगलों में बसे कबीलों के संपर्क में प्रथम बार आये थे | हालाँकि एक राजा के तौर पर राणा विजेंद्र ने अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से कबीलों से संपर्क कायम किया था परन्तु व्यक्तिगत तौर पर यह उनकी पहली यात्रा थी | शायद इसी कारण हर कबीले से मिली जानकारी उन्हें और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती या शायद राणा विजेंद्र सिंह की नियति उन्हें अपनी और खींच रही थी

कई दिन की कठिन यात्रा के बाद राणा विजेंद्र सिंह सिम्हाद्रि कबीले को बहुत पीछे छोड़ आये थे | सिम्हाद्रि कबीले के सरदार ने राणा साहब को आगे की यात्रा ना करने के लिए स्पष्ट चेतावनी दी थी परन्तु राजपूती खून अपनी सीमाओं के आखिरी छोर तक जाना चाहता था और गुजरने वाले हर दिन के साथ सीमा क्षेत्र नज़दीक आता जा रहा था | और फिर एक दिन राणा विजेंद्र सिंह उस पहाड़ी की चोटी तक पहुँच गए जिसे उनके राज्य की आखिरी सीमा कहा जाता था |

चारों तरफ छोटे बड़े पहाड़ और जंगल, जैसे प्रकृति ने अपनी तमाम खूबसूरती इन पहाड़ों में उड़ेल दी हो | पहाड़ी की छोटी से देखने पर जहाँ एक तरफ हरियाली ही हरियाली दिख रही थी वहीँ दूसरी तरफ जैसे रेत का समुद्र , और उस समुद्र में रेत की हलचल , जैसे रेत ज़िंदा हो और अपनी इच्छा से यहाँ से वहां आने जाने के लिए स्वतंत्र या शायद आँखों का भ्रम | वह पहाड़ी जिस पर राणा विजेंद्र मौजूद थे जैसे सीमा रेखा थी हरियाली और रेत के समुद्र के बीच और यही राणा विजेंद्र सिंह के राज्य की सीमा भी कहलाती थी | धीरे धीरे राणा विजेंद्र सिंह ने रेत ने नज़रें हटा कर पहाड़ी की तलहटी की तरफ देखा तो एक और अदभुत आश्चर्य के रूप में सैनिक चौंकी दिखाई दिया, जोकि पहाड़ी की ढलान पर बनी थी | सैनिक चौंकी पर लहराता राज्य का निशान बता रहा था की वहां राणा विजेंद्र सिंह के सैनिक होने चाहिए , परन्तु इस सैनिक चौंकी की जानकारी ना तो राणा विजेंद्र सिंह को थी और ना ही किसी अन्य अधिकारी को |

सैनिक चौकी के सैनिक राणा विजेंद्र सिंह को नहीं पहचानने थे वह सिर्फ उनके राज्य चिन्ह को पहचानने थे | राणा विजेंद्र सिंह उस चौंकी के विषय में जानना चाहते थे और चौकी के विषय में जानकारी सरदार से हासिल की जा सकती थी इसलिए सभी चौकी की तरफ चल दिए |

उस सीमा चौकी की स्थापना तकरीबन 300 वर्ष पूर्व राणा विजेंद्र सिंह के पूर्वजों द्वारा सिम्हाद्रि कबीले के सहयोग से की गयी थी और चौकी पर रहने वाले सैनिक राजकीय सैनिक ही थे परन्तु चौकी को आदेश राजधानी से नहीं बल्कि सिम्हाद्रि कबीले से मिला करते थे इसीलिए धीरे धीरे उनका राजधानी से सम्बन्ध समाप्त हो गया और सिम्हाद्रि कबीले से सम्बन्ध लगभग नहीं के बराबर था इसीलिए यह चौकी सभी मायनों में स्वतंत्र चौकी थी | चौकी के मूल सैनिक बहुत पहले समाप्त हो चुके थे वर्तमान में चौकी सैनिकों की पांचवी पीढ़ी सम्हाल रही थी और वह इस बात से लगभग अनजान थे की उनकी नियुक्ति किस दुश्मन से सुरक्षा के लिए की गयी है | उनकी जानकारी सिर्फ इतनी ही थी की चौकी राणा विजेंद्र सिंह के पूर्वक प्रताप सिंह की स्मारक की रक्षा के लिए है जिनकी मृत्यु इसी पहाड़ी पर हुई थी | पहाड़ी के नीचे ही सैनिकों ने अपनी बस्ती बना ली थी जहाँ रहने के सभी साधन उप्लब्दह थे | इसी बस्ती  से कुछ दूर प्रताप सिंह की स्मारक बनी हुई थी

राणा विजेंद्र सिंह प्रताप सिंह के नाम से परिचित थे | प्रताप सिंह राणा विजेंद्र सिंह से छः पीढ़ी पहले हुए थे इस सम्बन्ध में कुछ जानकारी राजभवन में मौजूद थी | प्रताप सिंह को वंश का सबसे बहादुर योद्धा के रूप में जाना जाता था परन्तु प्रताप  सिंह द्वारा किये गए कार्यों के विषय में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं थी उनकी मृत्यु सम्बन्धी जानकारी भी कहीं खो गयी थी |

अपनी सीमाओं पर एक बहादुर योद्धा की समाधि और एक भुला दी गयी सैनिक चौकी की खोज राणा विजेंद्र सिंह के लिए इतिहास को नए सिरे से लिखने के सामान था | परन्तु वह जानना चाहते थे की यहां चौकी किस दुश्मन के खिलाफ स्थापित की गयी | राणा विजेंद्र सिंह ने कई सैनिकों से बात की परन्तु सबके पास छोटी छोटी कहानियां थी किसी के पास विस्तृत विवरण मौजूद नहीं था | प्रताप सिंह की खोई हुई कहानी एक सूत्र में पिरोने के लिए किसी इतिहास कार की जरूरत थी इसीलिए राणा विजेंद्र सिंह ने सैनिक चौकी को समाप्त करने एवं सभी सैनिकों को राजधानी लौटने का आदेश दिया | इसके साथ ही स्मारक को भी राजधानी ले जाने का निर्णय किया गया |

सैनिकों के अथक परिश्रम के फलस्वरूप स्मारक को सुरक्षित रूप से छोटे छोटे टुकड़े में बाँट दिया गया और उन टुकड़ों को एक पालकी नुमा गाड़ी की सहायता से राजधानी तक पहुँचाने की व्यवस्था की गयी |  स्मारक को तोड़ने पर दो व्यक्तियों के  शारीरिक अवशेष भी प्राप्त हुए जोकि अपने आप में रहस्मयी थी | दोनों शरीरों के अवशेष भी राजधानी ले जाने की व्यवस्था की गयी |

स्मारक के कुछ दूर दूसरी तरफ तीन झोंपड़ियां थी जिनमे से सिर्फ एक ही सही सलामत थी | इन तीन झोंपड़ियों में एक परिवार रहता था | यह परिवार पिछले कई पीढ़ियों से स्मारक की देखभाल का काम कर रहा था | कुछ वर्ष पहले परिवार के बुजुर्गों की मृत्यु हो जाने के बाद अब एक कन्या ही रह रही थी |

जिस परिवार के वंशज प्रताप सिंह की स्मारक की देखरेख करते रहे हो उनको यहाँ वीराने में छोड़ देना संभव नहीं था इसीलिए राजा विजेंद्र सिंह उस कन्या को भी राजधानी ले जाने एवं सरक्षण देने का निश्चय कर चुके थे |

कई दिन बाद राणा विजेंद्र सिंह अपने अंगरक्षकों एवं चौकी के सैनिकों के अलावा उस कन्या एवं स्मारक के टुकड़ों के साथ अपनी राजधानी की तरफ रवाना हुए | राणा विजेंद्र सिंह का काफिला सिम्हाद्रि कबीले के पास से गुजर रहा था जब कबीले का सरदार सामने आये | सरदार को देख कर काफिला रुक गया | जिस वक़्त राणा विजेंद्र सिंह सिम्हाद्रि सरदार को सैनिक चौकी और स्मारक के विषय में बता  रहे थे उस वक़्त सिम्हाद्रि सरदार विजेंद्र सिंह के साथ आयी उस खूबसूरत कन्या को देख रहे थे |

“राणा विजेंद्र सिंह वह चौकी सिम्हाद्रि के निर्देशन में थी”

“हां मुझे इस विषय में बताया गया था”

“तो क्या यह आवश्यक नहीं था की हमसे परामर्श के बाद निर्णय लेते”

“ऐसा किया जा सकता था परन्तु वहां मुझे कोई दुश्मन दिखाई  नहीं दिया इसीलिए मैंने चौकी हटाने  का आदेश दे दिया”

“हर दुश्मन दिखाई नहीं देता”

“पहाड़ी के पार रेत का जंगल है परन्तु रेत के अतिरिक्त वहां और कुछ नहीं है मीलों दूर तक फैली रेत किसी दुश्मन का रास्ता रोकने में समर्थ है”

“हो सकता है”

“अब आप क्या चाहते है”

“तुम्हारे साथ जो कन्या है उसे हमारे हवाले कर दो”

“यह कन्या उस परिवार की आखिरी जीवित वंशज है जो स्मारक की देखभाल करता था मैंने इसे संरक्षण दिया है मैं इसे किसी को नहीं दे सकता जब तक की कन्या खुद सहमत न हो”

“क्या यह तुम्हारा आखिरी फैसला है”

“आखिरी फैसला इस कन्या को करना है”

“ठीक है तुम जा सकते हो और जब तुम्हें हमारी आवश्यकता हो तो हमें नीली पहाड़ी के जंगलों में तलाश करना”

“क्या आप इस जगह का त्याग कर रहे है”

“इस जगह का वक़्त पूरा हो चुका है अब यहाँ मौत के अतिरिक्त और कुछ नहीं रह सकता”

“क्या आप अपनी बात का खुलासा करेंगे”

“वह सैनिक चौकी और समारक बिना कारन नहीं थी अब दोनों हटा दिए गए है तो अब उस रेत और रेत में छिपे दुश्मन को रोकने का साधन नहीं है अब वह रेत और रेत में छिपा दुश्मन इन जंगलों में राज करेगा इसलिए हर जीवित प्राणी अथवा जानवर को यहाँ से जाना होगा”

“क्या रेत और रेत में छिपा दुश्मन  ?”

“और राजपूतों की तलवारें इस दुश्मन से नहीं लड़ सकती”

“यह सैनिक रेत और रेत में छिपे दुश्मन को रोकने के लिए कुछ नहीं कर रहे थे”

“चौकी और स्मारक की मौजूदगी ही दुश्मन को रोकने के लिए पर्याप्त थी”

“यदि ऐसा है तो शीघ्र ही वहां एक व्यवस्थित चौकी स्थापित कर दी जाएगी”

“उससे कुछ फायदा नहीं होगा राणा विजेंद्र सिंह”

“तो क्या उपाय है”

“यह कन्या”

“इसे मैंने संरक्षण दिया है”

“तब तो सिर्फ एक ही उपाय बचता है”

“वह क्या”

“अपनी नियति को पहचानिये”

और उसके बाद शायद किसी के पास कहने के लिए कुछ शेष नहीं था इसलिए सब अपने शिविरों में चले गए | अगले दिन राणा विजेंद्र सिंह अपने काफ़िले के साथ राजधानी की और एवं सिम्हाद्रि कबीले के नागरिक नीली पहाड़ी की और रवाना हो गए |  कई दिन की यात्रा के बाद राणा विजेंद्र सिंह राजधानी लौट आये | जहाँ उन्होंने सेनापति से विचार विमर्श के बाद सेना की कुछ टुकडिया सीमा की तरफ दुश्मन से लड़ने के लिए जंगलों में भेजी | सिम्हद्री कबीले से प्राप्त जानकारी के मुताबिक रेत में छिपे दुश्मन से लड़ने के लिए तलवारें उपयोगी नहीं थी इसीलिए सेना की यह टुकड़ी कई तरह के रसायनों का घोल एवं कई तरह के हथियारों से सम्पन थी |

सेना की यह टुकड़ी वापिस नहीं लोटी बल्कि चाँद सैनिक ही लोटे | जो सैनिक वापिस लोटे उनसे राणा विजेंद्र सिंह को महतवपूर्ण जानकारी हासिल हुई उनकी सुचना के मुताबिक जंगल में रेत के अलावा को अनजान एवं रहस्य्मयी शक्ति भी मौजूद थी इसीलिए रेत से जीतना असंभव था |

राणा विजेंद्र सिंह जिस कन्या को साथ लाये थे उसे राजमहल में ही रखा और उसे राजकुमारी के रूप में सरक्षण दिया  |

उस खूबसूरत कन्या का नाम प्रज्ञा था